जैन धर्म के सिद्धांत सुख,शांति,आनंद- महेंद्रसागर जी मा.सा

उज्जैन- जैन दर्शन अर्थात जैन सिद्धांत बतलाता है कि संसार का स्वरूप कैसा है संसार में दो प्रकार की वस्तु है एक जीव दूसरा अजीव, जीव वह जानता है समझता है सुखी दुखी होता है एवं अजीव इसके विपरीत होता है। संसार में जीव दो प्रकार की जीवन शैली में जीवन जीता है पहले अनुकूल स्थिति पाकर खुश होता है एवं प्रतिकूल स्थिति आने पर दुखी होता है दूसरी स्थिति अनुकूल या प्रतिकूल जैसी भी हो उसमें क्षमता भाव से जीते हुए आनंद में रहना। हम परमात्मा के सिद्धांतों को स्वीकार नहीं कर पाते इसलिए ज्यादा समय अशांति दुख अभाव तनाव में रहते हुए भी जीवन को बर्बाद कर देते हैं गुरुदेव श्री महेंद्र सागर जी मा.सा अपने नित्य प्रवचन में आत्मा जीव में अनंत शक्ति, अनंत सुख, अनंत शांति, अनंत वीर्य है जितनी शक्ति परमात्मा में है इतनी शक्ति जीव में है किंतु हमारे कर्मों के कारण इन सभी शक्तियों में आवरण आ गया है हम अपनी शक्ति पहचान नहीं पा रहे हैं यह कर्म आत्मा की शक्तियों को नहीं दे रहे हैं इसलिए हम संसार में भटकते हैं और दुर्गति में जाते हैं हमारे गलत भाव के कारण हम हमेशा दुखी ही रहते हैं मेरे मरने के बाद मेरे बच्चों का, परिवार का, पैसे का, संपत्ति का, क्या होगा इसकी चिंता करते हैं पर मेरे मरने के बाद मेरा क्या होगा इसकी चिंता नहीं करते । इन कर्मों से बचने के उपाय के रूप को गुरुदेव ने प्रवचन में व्यक्त किया कि जो सुख जीवन संसार में ढूंढ रहा है वह संसार की वस्तु में नहीं है उसके भोग में नहीं उसके परिग्रह में नहीं है सुख-स्वयं उसके अंदर उसकी आत्मा में है इसके आत्मिक सुख की खोज में कुछ लोग आगे बढ़ते हैं राग द्वेष मोह को पहचानते हैं मोह से बचते हुए आत्मिक सुख जो कभी खत्म नहीं होता बिना रुकावट के सतत मिलता रहता है वह प्राप्त करते हैं उन्हें साधु कहां गया है अरिहंत पद की प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं अपने राग को निकाल कर वितराग बनने का प्रयास करते हैं अपने आप को संसार की आसारता को निकालते हैं वे साधु कहलाते हैं परम पूज्य विराट सागर की मा सा द्वारा उज्जैन की नगरी की इतिहास को बताया गया है इसमें लगभग 11 लाख 85 हजार वर्ष पूर्व की घटना का उल्लेख करते हुए श्रीपाल राजा एवं मयना सुंदरी के जीवन में धर्म की स्थापना एवम नवपद की आराधना करके उन्होंने अपना जीवन कैसे सफल बनाया यह बतलाया इस कथा के माध्यम से समझाया कि सज्जन व्यक्ति वह है जो दूसरे के दुख में दुखी हो और उसके दुख को दूर करने का प्रयास सर्वप्रथम करें धर्मपत्नी वह स्त्री है जो अपने पति को सही मार्ग में, धर्म के मार्ग में आगे बढ़ाये उसी हीधर्मंपत्नी कहा गया है हम चिंता किसकी करते हैं हमारे तन की यह हमारे मन की, धर्म को जानना मानना जीना ऐसा उपदेश गुरुभगवतो द्वारा दिया गया है।