सामाजिक समरसता रणनीति नहीं, हिन्दुस्तान का धर्म है : मोहन नारायण गिरी

उज्जैन। सामाजिक समरसता समग्र चिंतन है। समरसता का दर्शन राष्ट्रवादी चिंतन है। सामाजिक समरसता का अर्थ संवाद, सहयोग, सामर्थ्य, समृद्धि, सामंजस्य, सहानुभूति और संवेदना है। सामाजिक समरसता मानवीयता का प्राथमिक लक्षण है। समरसता हमारी सनातनी परम्परा का उदात्त चिंतन है। यही कारण है कि हम बुद्ध को भी विष्णु का अवतार मानते हैं। भारतीय संस्कृति में मानवीय उदारता, विश्व कल्याण की भावना समाहित है। ऐसी ही हमारी संत-परम्परा है। संत विचारधारा की व्यापकता असीमित है, जो मनुष्य के आंतरिक स्वरूप का द्योतक है। संत रैदास और बाबा साहेब ऐसे महान समाज सुधारक, शोषित, पीड़ित न्याय वंचित मानवता के लिए अनवरत संघर्ष करने वाले दिव्य पुरुष हैं।
उक्त विचार शहीद समरसता मिशन भोपाल के संस्थापक मोहननारायण गिरी ने डॉ. आम्बेडकर पीठ और सामाजिक समरसता मंच, उज्जैन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित संत रविदास जयंती के उपलक्ष्य में सामाजिक समरसता के प्रेरक संत रविदास और डॉ. आम्बेडकर विषय पर कही।
श्री गिरी ने कहा कि गुरु रविदास की करनी और कथनी में एकता थी। यह उनके जीवन की बड़ी विशेषता है। संत रैदास श्रम साधना के समर्थक थे। उनका मानना था कि जब तक शक्ति सामर्थ्य हो परिश्रमपूर्वक ही जीवन यापन हो। वे श्रम को ईश्वर की संज्ञा देते थे। इसकी साधना को सुखशांति का मूल और परिवार-समाज-देश के विकास का मुख्य आधार मानते थे। डॉ. आम्बेडकर भी श्रम को प्रतिष्ठा दिलाने वाले चिन्तक थे। निर्माण में परिश्रम ही महत्वपूर्ण कारक है। बाबा साहेब ने श्रम के महत्व, विशेषकर मानव श्रम को स्थापित करने के लिए सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। श्री गिरी ने कहा समाज को गुरु रविदास जी की सर्वप्रमुख मानव समानता का विचार है। उन्होंने मानव-मानव में ऊँच-नीच, जाति-विजाति आदि भेदभाव तथा विद्वेष की भावना को समाप्त कर मानव एकता का संदेश दिया।
मध्यकालीन इतिहास में भारतीय समाज में जाति प्रथा की जटिलताएँ, अंधविश्वास व्याप्त था। इस जातिवाद, सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध संत रैदास ने आवाज उठाई और व्यक्ति को गुणों और कर्मों से ऊँचा व सम्मान योग्य होने को समाज में प्रतिष्ठित किया और डॉ. आम्बेडकर ने हमारे संविधान में अनुच्छेद १४ से १८ तक समता के अधिकार को दिया है। इसे बाबा साहेब पर रैदास चिन्तन का प्रभाव ही कहा जाना चाहिए।
इतिहासविद्, पुराविद् प्रो. प्रशान्त पुराणिक ने अपने उद्बोधन में कहा भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। इस संस्कृति का परिचय करने वाली पुस्तक ऋग्वेद है, जो संसार का सर्वप्रथम ग्रंथ है। वेदों में भारतीय संस्कृति का सच्चा स्वरूप बताया गया है, जो मनुष्य मात्र के लिए समत्व और ममत्व का एक अद्भुत उदाहरण है। जहाँ जाति-पाति और ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं है। लेकिन देश के सामाजिक इतिहास में सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन विशेष रूप से मध्यकाल में जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज में उथल-पुथल कर दी। अन्यथा जाति के इतिहास में न तो कोई गोत्र था और न ही शूद्र। यहाँ तक ऋग्वेद में भी शूद्र शब्द ही नहीं है। राष्ट्र संत रैदास ने भारतीय समाज के लोगों की बिना वर्ण, जाति तथा क्षेत्रीय भेदभाव के स्वीकारने की बात कही। धार्मिक कट्टरता और जटिलता को समाप्त कर समभाव-समानता के प्रचार-प्रसार में सम्पूर्ण जीवन आहूत किया। बाबा साहेब ने इसी परम्परा का निबाह करते हुए स्वतंत्रता समातना और बंधुत्व को स्थापित करने में संघर्षरत रहे। श्री रैदास जी ने निर्मल मन से बहुजन हित और बहुजन सुख के लिए सार्थक भावना तथा दार्शनिक चिन्तन को उद्यता और श्रेष्ठता दी। इसीलिए उन्हें शिरोमणि संत रैदास कहा जाता है।
संतश्री विनीत गिरीजी महाराज गादीपति, श्री महाकालेश्वर मंदिर ने कहा कि हमारी सनातनी परम्परा सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे भवन्तु निरामया की है। सनातनी परम्परा की पहचान वेद, गीता, संतों और ऋषि परम्परा से है, जिसका मूलभाव ही उदार मन है और उदार मन मानवीयता, सामाजिकता और नैतिकता से आती है। जो समरसता को स्थापित करती है। आखिर सामाजिक समरसता की आवश्यकता क्या पड़ी? क्या हम अपने ध्येय, लक्ष्य से विमुख हो गए हैं? या फिर आधुनिकता में इतने रच बस गए हैं कि अपनी संस्कृति परम्परा और मूल्यों को विस्मृत कर दिया है। कानून से सम्मान नहीं मिलता, सम्मान हृदय-भाव और संवेदना से आता है। हमें अपनी पहचान को देखने की आवश्यकता है। क्योंकि जाति तो सिर्फ दो ही है- १. मानव, २. दानव और मनोवृत्ति, व्यवहार से बनती है। योग करने के लिए धर्म की आवश्यकता नहीं है। वैदिक से वर्तमान युग तक के ऋषि, मुनि, आचार्य, संत, महापुरुष का मूल मंत्र ही समानता समरसता पर आधारित है और इस परम्परा को जो पूरी प्रकृति और ब्रह्माण्ड को लेकर चलती है, उस पर आज हमें चलने की आवश्यकता है, चिन्तन की आवश्यकता है। रैदास और बाबा साहेब के उन विचारों को व्यवहार में लाने की जरूरत है। सामाजिक समरसता पल्लवित होने लगेगी।
अध्यक्षीय उद्बोधन देते कुलपति प्रो. अखिलेश कुमार पांडेय ने कहा कि राष्ट्र निर्माण का कार्य सामाजिक समरसता से ही संभव है। हमारे संतों की परम्परा को संकल्पना को साकार रूप देने के लिए पहले अपने आपको संत शिक्षा से समृद्ध करना होगा। अपने व्यवहार को संतुलित रखना होगा। क्योंकि प्रकृति ने मनुष्य को समान रूप से पैदा किया है। व्यक्तिगत अहंकार की तिलांजलि देकर समात और बंधुत्व के अध्ययन की आवश्यकता है। सामाजिक समरसता परिवार से प्रारंभ होकर देश को शक्तिशाली बनाती है। संत शिरोमणि रविदास के व्यक्तित्व को जानना, बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवन से प्रेरणा लेकर ही हम स्वस्थ समाज की स्थापना कर सकते हैं।
स्वागत भाषण डॉ. आम्बेडकर पीठ के प्रभारी आचार्य डॉ. एस.के. मिश्रा ने दिया। समरसता मंत्र कैलाश सोनी ने, समरसता गीत मुकेश प्रजापति ने प्रस्तुत किया। सामाजिक समरसता मंच की गतिविधियों की जानकारी महेन्द्र उपाध्याय ने दी। डॉ. आम्बेडकर पीठ की गतिविधियाँ व संचालन शोध अधिकारी डॉ. निवेदिता वर्मा किया। आभार डॉ. शेखर दिसावल दिया। कल्याण मंत्र दीपक शेंबेकर ने पढ़ा।
विचार समागम में धर्मेन्द्र सिंह मौर्य, राकेश खांडेगर, मनोज सोनी, जसविंदरसिंह, डॉ. संग्राम भूषण, प्रो. प्रेमलता चुटेल, डॉ. राजेश्वर शास्त्री मूसलगांवकर, समरसता मातृशक्ति, अशोक बुद्ध विहार की मातृशक्ति, रैदास व वाल्मीकि समाजजन व गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। अंकुर टिटवानिया व रूपेश का विशेष सहयोग रहा।